Saturday, April 28, 2012

कभी कभी सोचता हूँ

कभी कभी सोचता हूँ
काश!
मुझे चेहरे पढ़ना नहीं आता तो कितना अच्छा होता
तो कम से कम
अपनापन ओढ़े हुए
उन अपनों की सच्चाई से तो बच जाता
जो हर पल साथ होने की हामी भरते हैं
और नक़ल भी करते हैं
पर उनकी आँखों से झांकता हुआ सच
बार-बार मुस्कुरा कर कहता है
कि
देखा मैंने तुम्हें एक बार और इस्तेमाल कर लिया
और मैं रिश्तों के टूटने
और खोने के डर से
फिर चुप हो जाता हूँ
पर इस रूह का क्या करूं
जो हर पल इस छल से ख़त्म हो रही है
काश !
मुझे चेहरे पढ़ना नहीं आता तो कितना अच्छा होता