Friday, November 11, 2011

सोंचते हैं

सोंचते  हैं शहर से जाएँ  कहीं
ग़मों को छाँट आयें कहीं
घना हो गया है जंगल यादों का
कलम से काट आयें कहीं
कागजों का ढेर हो गया पास मेरे
बहते पानी में सिरा आयें कहीं
बन रहा है दर्द का दरिया मुझमें
चलो समंदर में उतर आयें कहीं
पल भर में उन्हें गले लगा लूँगा
वो मुझसे मिलने आयें तो कहीं
सोंचते हैं शहर से जाएँ कहीं

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